ग्रहों के रेखांश (Longitudes) या भोगांश– क्रांतिवृत के ध्रुवों को कदम्ब कहते हैं | कदम्बों को मिलाने वाले बड़े वृत्त कान्तिवृत्त को लम्बवत काटते हैं | नीचे दिए हुए चित्र में प और फ कदम्ब हैं | आकाशीय पिंड की क्रन्तिवृत पर मेष के प्रथम बिंदु से कोणीय दूरी को भोगांश कहते हैं | इसे इस प्रकार समझे कि आकाशीय पिंड से क्रान्तिवृत के तल पर खगोल कि सतह के साथ लम्बवत चाप डालें और जिस स्थान पर वह
क्रान्तिवृत को काटे,
उस स्थान की मेष के
प्रथम बिंदु से कोणीय दूरी भोगांश होती है
ग्रहों के अक्षांश (Latitude) – (अक्ष का अंश) - किसी भी ग्रह या आकाशीय पिंड या ज्योतिषीय अवयव की क्रांतिवृत से कोणीय दुरी को उसका अक्षांश कहते हैं. इसे ग्रह का शर या विक्षेप भी कहते हैं. क्रांतिवृत पर लम्ब ,
ग्रह के स्थिति के अनुसार दोनों और से आ सकता है. भचक्र का विस्तार दोनों और 90 से अधिक नहीं है इसलिए विक्षेप इससे अधिक नहीं हो सकता है सूर्य का विक्षेप सदैव शून्य होता है क्योंकि वह सदैव क्रांतिवृत पर रहता है.
ग्रहों के विषुवांश – आकाशीय पिंड से विषुवत वृत्त पर लम्बवत चाप जहाँ मिले, उस बिंदु की सायन मेष का प्रथम बिंदु से कोणीय दूरी को विशुवांश कहते हैं | यह विषुवत वृत्त का भाग या अंश होने से विशुवांश कहलाता है | रेखांश भी ग्रीष्म सम्पात बिंदु से कोणीय दुरी है और क्रांतिवृत पर मापी जाती है जबकि विषुवांश भी कोणीय दुरी है और यह विषुव रेखा से मापी जाती है इसलिए इस दुरी को विषुवांश कहते है विषुव रेखा को नाडी वृत्त भी कहते हैं .
ग्रहों की क्रान्ति या दिग्पात – किसी ग्रह की विषुवत रेखा पर लम्बवत कोणीय दुरी उस ग्रह की क्रान्ति या दिग्पात कहलाती है. अक्षांश और दिग्पात दोनों लम्बवत कोणीय दुरी है परन्तु अक्षांश में यह लम्ब क्रांतिवृत पर डाला जाता है और और दिग्पात में विषुवत रेखा पर.
ग्रहों का उन्नतांश – इसे ग्रह की उंचाई भी कह सकते है यह उंचाई दर्शक के सापेक्ष होती है यदि दर्शक के शिरो बिंदु से ग्रह के बीच से गुजरता हुआ लम्ब डाला जाए और यह लम्ब जहाँ पर क्षितिज से तल को काटेगा उस बिंदु से ग्रह तक चाप की कोणीय दुरी उस ग्रह का उन्नतांश है.
ग्रहों का दिगंश- ग्रह के उन्नतांश में लम्ब की कोणीय दुरी एक अन्य बिंदु से जहाँ यामोत्त्तर वृत्त उत्तरी दिशा में क्षितिज से मिलता है उसे ग्रह का दिगंश कहते हैं.
शिरो बिंदु –
पृथ्वी पर खड़े व्यक्ति (प्रेक्षक)के मध्य से गुजरने वाली रेखा रेखा को यदि उपर की और इतना बढ़ाया जाये कि वह महान वृत्त को छूती सी प्रतीत हो, उस बिंदु को हो उस व्यक्ति का शिरो बिंदु कहते है
अधो बिंदु या पाताल बिंदु –(Nadir) – प्रेक्षक जिस स्थान पर खड़ा हो तब उसके पैरों से और पृथ्वी के केंद्र से होती हुई रेखा खगोल को जिस स्थान पर काटे, वह बिंदु अधोबिंदु कहलाता है |
शिरो बिंदु के विपरीत बिंदु को अधो बिंदु या पाताल बिंदु कहते है| यह क्षितिज वृत्त का दूसरा ध्रुव है |
उद्वृत्त (Vertical) – किसी स्थान के शिरोबिंदु और अधोबिंदु को आकाशीय गोले के ताल पर मिलाने से जो बड़े वृत्त बनते हैं, उन्हें उद्वृत्त कहते हैं | यह क्षितिज वृत्त पर लम्बवत होते हैं |
याम्योत्तर वृत्त (celestial Meridian) – आकाशीय ध्रुवों और प्रेक्षक के शिरोबिंदु से जो वृत्त खगोल पर बनता है, उसे दर्शक का याम्योत्तर वृत्त कहते हैं | यह क्षितिज वृत्त को उत्तर व् दक्षिण बिन्दुओं को लम्बवत काटता है | दक्षिण को यम भी कहते हैं | इस प्रकार जो वृत्त किसी स्थान के दक्षिण से उत्तर तक शिरोबिंदु से होता हुआ जाए वह याम्योत्तर वृत्त हुआ |
विक्षेप या शर (celestial Latitude) – आकाशीय पिंड से कान्तिवृत्त पर
लम्बवत चाप की कोणीय दूरी को विक्षेप (शर) कहते हैं |
विशुवांश – आकाशीय पिंड से विषुवत वृत्त पर लम्बवत चाप जहाँ
मिले, उस बिंदु की सायन मेष का प्रथम बिंदु से कोणीय
दूरी को विशुवांश कहते हैं | यह विषुवत वृत्त का
भाग या अंश होने से विशुवांश कहलाता है |
आकाशीय गोल – ( Sphere) जिस प्रकार से गेंद गोल है उसी प्रकार से पृथ्वी भी लगभग गोल है इसे ही भूगोल कहते है इसी पृथ्वी के गोले को अनन्त आकाश में अनंत दूरियों तक यदि प्रक्षेपित ( Project ) करें , तो जो एक काल्पनिक गोला बनेगा उसी को खगोल कहते है या आकाशीय गोल कहते हैं “ख”
अर्थात आकाश ,
अंग्रेजी भाषा में इसे Celestial
Sphere कहते हैं ज्योतिष्य गणना में इन दो गोलों का ही समावेश होता है
कान्तिवृत्त (Ecliptic) – सूर्य के तारों के बीच एक वर्ष के आभासीय भ्रमण मार्ग को इसकी कक्षा
कहते हैं | जब इस कक्षा को खगोल में फैलाया जावे तो खगोल के ताल पर एक बड़ा वृत्त बनता
है उसे कान्तिवृत्त कहते हैं | मॉडर्न science में पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करता है न कि सूर्य पृथ्वी की (इसको टाल्मी
ने माना कि जिसे हम सूर्य का आभासीय भ्रमण कहते हैं वह पृथ्वी का भी आभासीय भ्रमण
हो सकता है किन्तु यहाँ हम Modern Science को ही प्रमाण
मानेगे ) इस कारण क्रांतिवृत्त की परिभाषा यह भी होती है कि पृथ्वी के वार्षिक
भ्रमण मार्ग को अनन्त आकाश में फैलाने पर जिन स्थानों पर वह खगोल को काटे उस वृत्त
को कान्तिवृत्त कहते हैं | यह कान्तिवृत्त विषुववृत्त (celestial
Equator) पर २३०२७’ का कोण बनाता है |
भूगोल – पृथ्वी लगभग गोल है तथा लट्टू की भांति अपनी धुरी पर या अक्ष पर 231/2
अंश पर पश्चिम से पूर्व की तरफ घुमती है पृथ्वी की इस गति को घूर्णन कहते हैं अंग्रेजी भाषा में इसे Rotation
कहते हैं पृथ्वी का एक चक्कर सूर्य उदय से सूर्य उदय तक पूरा हो जाता है जब इस चक्कर को २४ भागों में बांटे तो एक भाग को घंटा या होरा या Hour
कहते हैं और जब इसी समय के अंतराल को ६० भागों में विभक्त करते हैं तो एक भाग को घटि ,
घड़ी या दण्ड या नाडी कहते हैं
भचक्र या राशिचक्र – कान्तिवृत्त के दोनों ओर उत्तर और दक्षिण में ९० की पट्टी को भचक्र कहते हैं | इसमें वृत्त पर कान्तिवृत्त के ९० उत्तर में और व् ल कान्तिवृत्त के ९० दक्षिण में है | इसी पट्टी में चंद्रमा व् सारे ग्रह भ्रमण करते हैं |
भूमध्य रेखा – पृथ्वी के मध्य में से जो काल्पनिक रेखा खीँची गयी है और जो इस गोल को दो भागों में विभक्त करती है भूमध्य रेखा कहते हैं यह पृथ्वी को दो भागों में समान रूप से बांटती है उपर वाले भाग को उतरी गोलार्द्ध और दक्षिणी भाग को दक्षिणी गोलार्द्ध कहते हैं|
यदि पृथ्वी के मध्य से जाता हुआ
यदि एक Plan खींचे जो पृथ्वी के अक्ष से लम्बवत (Perpendicular)
हो तो वो पृथ्वी की सतह को जब काटेगा तो वह एक वृत्त होगा, जिसे पृथ्वी कि भूमध्य रेखा कहते हैं |
यदि उपरोक्त चित्र को या विधान को हम आकाश में प्रक्षेपित करें तो –
१. भूगोलीय भूमध्य रेखा
आकाशीय विषुव या नाडी वृत्त / Celestial Equator
२. भूगोलीय रेखांश / Terestrial
Longitude आकाशीय रेखांश / Celestial Longitude
३. भूगोलीय देशान्तर / Terestrial Latitude
आकाशीय देशान्तर / Celestial Latitude
की तरह कार्य करता है यहाँ यह बता देना आवश्यक है आकाश में एक रेखा और भी है जिस पर सूर्य भ्रमण करता दिखाई देता है वास्तव में यह पृथ्वी का भ्रमण पथ है इसे रवि पथ या सूर्य पथ या क्रान्ति वृत्त भी कहते है अब पृथ्वी पर पूर्व व् पश्चिम का निश्चय इसी रेखांश से होता है इसके पूर्व में 180 रेखाएं तथा पश्चिम में भी 180
रेखाएं अंकित की गयी हैं 180 वीं रेखा सम है जो नितान्त पूर्व भी है और नितान्त पश्चिम भी , यह रेखा अमेरिका में होनोलुलु नाम के शहर से गुजरती है इसी रेखा को तिथि रेखा या डेट लाइन कहा जाता है पृथ्वी पर इस रेखा का सूर्योदय पूरी पृथ्वी का सूर्योदय माना जाता है जबकि ग्रीनविच में उस समय मध्य रात्रि होती है इसी कारण से मध्य रात्रि से तिथि में परिवर्तन होता है
मानक मध्यान्ह रेखा या मुख्य मध्यान्ह
रेखा (Standard Meridian) – प्रत्येक देश का फैलाव उत्तर व् दक्षिण की ओर ही नहीं
होता बल्कि पूर्व और पश्चिम में भी होता हो | जो देश पूर्व में होंगे वहां मध्यान्ह
पहले होगा बजाय उनके जो पश्चिम में होंगे | इस कारण पूर्व
वाले स्थानों का स्थानीय समय पश्चिम वाले स्थानो से अधिक होगा | इससे समस्या यह आती है कि पूर्व वाला समय कुछ बताएगा और पश्चिम वाला कुछ
और बताएगा | सांसारिक व्यवहार गड़बड़ा जायेगा | इस का हल यह निकाला गया कि एक देश और अधिक विस्तार वाले देशों को
क्षेत्रों में बांटकर एक क्षेत्र की एक मुख मध्यान्ह रेखा/मानक मध्यान्ह रेखा हो
और उस स्थान का स्थानीय समय उस सारे देश या क्षेत्र में मान्य हो अर्थात उस
समयानुसार ही उस देश या क्षेत्र के सारे सांसारिक कार्य संपन्न किये जायेंगे |
प्रधान मध्यान्ह रेखा या प्रथम मध्यान्ह
रेखा (Prime Meridian) – सारी रेखांश को
मापने के लिए एक मध्य रेखांश चुना गया है जो ग्रीनविच से होते हुए जाता है | उसे 0०E या 0० रेखांश माना
जाता है और बाकी सारे उसके सन्दर्भ में गिनते हैं पूर्व की ओर या पश्चिम कि ओर | भारत में ८२.५० अंश पूर्वी
रेखांश = ८२०३०’ के आधार पर मानक समय प्रामाणित है |
उत्तरी गोलार्ध एवं दक्षिणी गोलार्ध
– उस
plan
के उत्तरी भाग को उत्तरी गोलार्ध व दक्षिणी भाग को दक्षिणी गोलार्ध
कहते हैं |
पृथ्वी के अक्ष का तिरछापन – पृथ्वी अपनी जिस अक्ष पर घुमती है वह 23
½ 0 का कोण है वसंत सम्पात ( V.E.) व् ( A.E.) बिन्दुओं पर क्रान्ति वृत्त तथा विषवुत वृत्त के बीच यही कोण है
पृथ्वी अपने अक्ष से २३.५० झुकी
हुई है | धरती अपने अक्ष पर इस प्रकार झुकी
हुई है जिससे कि इसका उत्तरी सिरा हमेशा उत्तरी ध्रुव तारे के सामने रहता है | जहाँ पर पृथ्वी के अक्ष के उत्तरी और दक्षिणी सिरे पृथ्वी
की सतह पर मिलते हैं,
उनको ही उत्तरी ध्रुव और
दक्षिणी ध्रुव कहा जाता है |
झुकाव (खगोलीय) / क्रांति (Declination)
खगोलशास्त्र में, झुकाव (अंग्रेज़ी:डेक्लिनेशन, लघुरूप. dec या δ) भूमध्यीय निर्देशांक
प्रणाली के दो निर्देशांकों में से एक होता है। दूसरा निर्देशांक दायां आरोहण या
घंटा कोण होता है। झुकाव की तुलना अक्षांश से की जा सकती है। इसका मापन डिगरी
उत्तर या दक्षिण में किया जाता है। अतं खगोलीय भूमध्य रेखा के उत्तर के बिन्दु
घनात्मक झुकाव व उसके दक्षिण वाले बिन्दु ऋणात्मक झुकाव पर होते हैं।
खगोलीय भूमध्य रेखा
पर बिन्दु का झुकाव 0° होता है।
खगोलीय उत्तरी ध्रुव
के बिन्दु का झुकाव +९०° एवं
खगोलीय दक्षिणी
ध्रुव के बिन्दु का झुकाव -९०° होता है।
होरा कोण – पृथ्वी ३६०० में अपना एक
चक्कर लगाती है अर्थात ३६०० =२४ घंटे या १५० = १ घंटा | इस प्रकार हम कह सकते हैं सूर्य १ घंटे में १५० घूमता हैं और
कहें तो ४ मिनट में सूर्य १० घूमता है | इस प्रकार सूर्य के
अंशों को घंटे में बदलने पर समय का माप आ जाता है | इसलिए यह
सूर्य का समय कोण या होरा कोण कहलाता है |
नक्षत्र काल या सम्पात काल (Sidereal Period) – ग्रह या आकाशीय
पिंड एक स्थिर तारे के सामने से चलकर पुनः उसी तारे के सामने आने में जितना समय
लेता है वह उसका नक्षत्र काल कहलाता है |
युति (Conjunction) – बाह्य ग्रहों और
पृथ्वी के मध्य सूर्य हो और ग्रह व् सूर्य दोनों के अंश सामान हों तब ग्रह की युति
होती है |
अंतर्युती या निकृष्ट युति (inferior Conjunction) – जब कोई आतंरिक
ग्रह (बुध और शुक्र) सूर्य और पृथ्वी के मध्य में हो अर्थात ग्रह के एक ओर सूर्य
और दूसरी ओर पृथ्वी हो और सूर्य व् ग्रह दोनों के अंश सामान हों वह उस ग्रह की
अंतर्युती होती है |
बहिर्युती (Superior Conjunction) – जब आतंरिक ग्रह
और सूर्य दोनों के अंश सामान हों और ग्रह व पृथ्वी के मध्य सूर्य हो तब वह उस ग्रह
की बहिर्युती होती है |
विपरीत युति – युति और विपरीत युति बाह्य ग्रहों की ही होती है | इस समय सूर्य और ग्रह के अंशों का अंतर १८०० (६ राशि) होता है अर्थात बाह्य ग्रह और सूर्य के मध्य पृथ्वी होती है |
संयुति काल – कोई ग्रह एक प्रकार की युति से चक्कर (अंतर्युती, बहिर्युती या विपरीत युति) पुनः उसी प्रकार की युति तक आने में जितना समय लेता है वह उस ग्रह का संयुति काल कहलाता है |
विषुव - ऋतुओं का बदलना
विषुव (अंग्रेज़ी:इक्विनॉक्स) ऐसा समय-बिंदु होता है, जिसमें दिवस और रात्रि लगभग बराबर होते हैं। इसका शब्दिक अर्थ होता है - समान। इक्वीनॉक्स शब्द लैटिन भाषा के शब्द एक्वस (समान) और नॉक्स (रात्रि) से लिया गया है।
किसी क्षेत्र में दिन और रात की लंबाई को प्रभावित करने वाले कई दूसरे कारक भी होते हैं। पृथ्वी अपनी धुरी पर २३½° झुके हुए सूर्य के चक्कर लगाती है, इस प्रकार वर्ष में एक बार पृथ्वी इस स्थिति में होती है, जब वह सूर्य की ओर झुकी रहती है, व एक बार सूर्य से दूसरी ओर झुकी रहती है। इसी प्रकार वर्ष में दो बार ऐसी स्थिति भी आती है, जब पृथ्वी का झुकाव न सूर्य की ओर ही होता है और न ही सूर्य से दूसरी ओर, बल्कि बीच में होता है। इस स्थिति को विषुव या इक्विनॉक्स कहा जाता है। इन दोनों तिथियों पर दिन और रात की बराबर लंबाई लगभग बराबर होती है। यदि दो लोग भूमध्य रेखा से समान दूरी पर खड़े हों तो उन्हें दिन और रात की लंबाई बराबर महसूस होगी। ग्रेगोरियन वर्ष के आरंभ होते समय (जनवरी माह में) सूरज दक्षिणी गोलार्ध में होता है और वहां से उत्तरी गोलार्ध को अग्रसर होता है। वर्ष के समाप्त होने (दिसम्बर माह) तक सूरज उत्तरी गोलार्द्ध से होकर पुनः दक्षिणी गोलार्द्ध पहुचं जाता है। इस तरह से सूर्य वर्ष में दो बार भू-मध्य रेखा के ऊपर से गुजरता है। हिन्दू नव वर्ष एवं भारतीय राष्ट्रीय कैलेंडर व विश्व में अन्य कई नव वर्ष इसी समय के निकट ही आरंभ हुआ करते हैं।
अयन
अयन आधे वर्ष तक सूर्य आकाश के उत्तर गोलार्ध में रहता है, आधे वर्ष तक दक्षिण गोलार्ध मे। दक्षिण गोलार्ध से उत्तर गोलार्ध में जाते समय सूर्य का केंद्र आकाश के जिस बिंदु पर रहता है उसे वसंतविषुव कहते हैं। यह विंदु तारों के सापेक्ष स्थिर नहीं है; यह धीरे-धीरे खिसकता रहता है। इस खिसकने को विषुव अयन या संक्षेप में केवल अयन (प्रिसेशन) कहते हैं (अयनचलन)। वसंतविषुव से चलकर और एक चक्कर लगाकर जितने काल में सूर्य फिर वहीं लौटता है उतने को एक सायन वर्ष कहते हैं। किसी तारे से चलकर सूर्य के वहीं लौटने को नाक्षत्र वर्ष कहते हैं। यदि विषुव चलता न होता तो सायन और नाक्षत्र वर्ष बराबर होते। अयन के कारण दोनों वर्षों में कुछ मिनटों का अंतर पड़ता है। आधुनिक नापों के अनुसार औसत नाक्षत्र वर्ष का मान ३६५ दिन, ६ घंटा, ९ मिनट, ९.६ सेकंड के लगभग और औसत सायन वर्ष का मान ३६५ दिन, ५ घंटा, ४८ मिनट, ४६.०५४ सेकंड के लगभग है। सायन वर्ष के अनुसार ही व्यावहारिक वर्ष रखना चाहिए, अन्यथा वर्ष का आरंभ सदा एक ऋतु में न पड़ेगा।
अयन का कारणलट्टू को नचाकर भूमि पर एक प्रकार रख देने से कि लट्टू का अक्ष खड़ा न रहकर तिरछा रहे, लट्टू का अक्ष धीरे-धीरे मँडराता रहता है और वह एक शंकु (कोण) परिलिखत करता है। ठीक इसी तरह पृथ्वी का अक्ष एक शंकु परिलिखित करता है जिसका अर्ध शीर्षकोण लगभग २३½°होता है। कारण यह है कि पृथ्वी ठीक-ठीक गोलाकार नहीं है। भूमध्य पर व्यास अधिक है। मोटे हिसाब से हम यह मान सकते हैं कि केंद्रीय भाग शुद्ध रूप से गोलाकर है और उसके बाहर निकला भाग भूमध्यरेखा पर चिपका हुआ एक वलय है। सूर्य सदा रविमार्ग के समतल में रहकर पृथ्वी को आकर्षित करता है। यह आकर्षण पृथ्वी के केंद्र से होकर नहीं जाता, क्योंकि पूर्वकल्पित वलय का एक खंड अपेक्षाकृत सूर्य के कुछ निकट रहता है, दूसरा कुछ दूर (द्र. चित्र)। निकटस्थ भाग पर आकर्षण अधिक पड़ता है, दूरस्थ पर कम। इसलिए इन आकर्षणों की यह प्रवृत्ति होती है कि पृथ्वी को घुमाकर उसके अक्ष को रविमार्ग के धरातल पर लंब कर दें। यह घूर्णनज ब पृथ्वी के अपने अक्ष के परित: घूर्णन के साथ संलिष्ट (कॉम्बाइन) किया जाता है तो परिणामी घूर्णन अक्ष की दिशा निकलती है जो पृथ्वी के अक्ष की पुरानी दिशा से जरा सी भिन्न होती है, अर्थात् पृथ्वी का अक्ष अपनी पुरानी स्थिति से इस नवीन स्थिति में आ जाता है। दूसरे शब्दों में, पृथ्वी का अक्ष घूमता रहता है। अक्ष के इस प्रकार घूमने में चंद्रमा भी सहायता करता है। वस्तुत: चंद्रमा का प्रभाव सूर्य की अपेक्षा दूना पड़ता है। सूक्ष्म गणना करने पर सब बातें ठीक वही निकलती हैं जो बेध द्वारा देखी जाती हैं। पृथ्वी की मध्यरेखा के फूले द्रव्य पर सूर्य के असम आकर्षण से पृथ्वी का अक्ष एक शंकु परिलिखित करता है।
विदोलन (न्यूटेशन)
चंद्रमार्ग का समतल रविमार्ग के समतल से ५° का कोण बनाता है। इस कारण चंद्रमा पृथ्वी को कभी रविमार्ग के ऊपर से खींचता है, कभी नीचे से। फलत:, भूमध्यरेखा तथा रविमार्ग के धरातलों के बीच का कोण भी थोड़ बहुत बदलता रहता है। जिसे विदोलन (न्यूटेशन) कहते हैं। पृथ्वीअक्ष के चलने से वसंत और शरद् विषुव दोनों चलते रहते हैं।
ऊपर बताए गए अयन को चांद्र-सौर-अयन (लूनि-सोलर प्रिसेशन) कहते हैं। इसमें भूमध्य का धरातल बदलता रहता है। परंतु ग्रहों के आकर्षण के कारण स्वयं रविमार्ग थोड़ा विचलित होता है। इससे भी विषुव की स्थिति में अंतर पड़ता है। इसे ग्रहीय अयन (प्लैनेटरी प्रिसेशन) कहते हैं।
आजकल यह समय लगभग २० मार्च तथा २३ सितंबर को आता है। जब यह मार्च में आता है तो उत्तरी गोलार्द्ध में रहने वाले इसे महा/बसंत विषुव (Vernal/(अंग्रेज़ी)) कहते हैं तथा जब सितंबर में आता है तो इसे जल/शरद विषुव (fall/(अंग्रेज़ी)) कहते हैं। यह उत्तरी गोलार्द्ध में इन ऋतुओं के आने की सूचना देता है। यह समय विषुव अयन के कारण समय के साथ साथ बदलता रहता है। अंतर्राष्ट्रीय समय में भिन्नता के कारण अलग अलग देशों में इसके दिखने की तिथियों में अंतर हो सकता है। उदाहरण के लिए दूरस्थ पूर्वी देशों में यह यूरोप और अमेरिका से एक दो दिन आगे पीछे दिख सकता है। हर ग्रह की एक काल्पनिक केंद्रीय रेखा को भूमध्य रेखा कहते हैं।[3] इसके साथ ही भूमध्य रेखा के ठीक ऊपर अंतरिक्ष में एक काल्पनिक आकाशीय रेखा भी होती है। इक्विनॉक्स के समय सूर्य सीधे भूमध्य रेखा की सीध में होता है। इसका अर्थ यह है कि यदि कोई व्यक्ति भूमध्य रेखा पर खड़ा हो तो सूर्य उसे सीधे अपने सिर के ऊपर दिखाई देगा। इसका यह भी अर्थ है कि आधा ग्रह पूरी तरह प्रकाशित होता है और इस समय दिन और रात लगभग बराबर होते हैं।
उत्तरी ध्रुव पर रहने वाले लोगों के लिए इक्विनॉक्स के अगले छह महीने लगातार दिन वाले होते हैं जबकि दक्षिणी ध्रुव के लोगों के लिए छह महीने अंधेरी रात वाले। इक्विनॉक्स के इस विशेष दिन दोनों ध्रुवों के लोगों को सूर्य का एक जैसा प्रकाश देखने को मिलता है, जबकि दोनों जगह का मौसम अलग होगा। ग्रेगोरी कैलेंडर में २१ मार्च की तिथि वसंत विषुव यानी वर्नल इक्विनॉक्स मानी गई है। भारत के राष्ट्रीय कैलेंडर शक संवत की प्रथम तिथि ईस्वी सन् ७९ के वसंत विषुव से प्रारंभ होती है। भारतीय सौर वर्ष वसंत विषुव प्रायः २१ मार्च के अगले दिन यानि २२ मार्च से शुरु होने के बजाय १३ या १४ अप्रैल से आरंभ होता है।
सूर्योच्य (Aphelion)
पृथ्वी के किनारे सूर्य की कक्षा में वह बिन्दु होता है, जहां सूर्य पृथ्वी से अधिकतम दूरी पर होता है।
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Anju Anand