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Wednesday 14 September 2016

ज्योतिष में खगोल शास्त्र का महत्त्व

ज्योतिष का प्राचीन कालीन अर्थ :- प्राचीन काल में ग्रह, नक्षत्र और अन्य खगोलीय पिण्डों का अध्ययन करने के विषय को ही ज्योतिष कहा गया था। ज्योतिष शब्द का एकल अर्थ ग्रह तथा नक्षत्रों की गणना - गति स्थिति आदि - से संबंध रखने वाली विद्या थी |

खगोल शास्त्र का अर्थ है ग्रह, नक्षत्रों की स्थिति एवं गति के आधार पर पंचांग का निर्माण, जिससे शुभ अशुभ समय को पहचान कर विविध कार्यों के लिये उचित मुहूर्त निकाला जा सके.|

ज्योतिष विज्ञान का यदि विश्व स्तर पर अध्ययन किया जाये, तब यह सिद्ध होता है कि सभी देशों में किसी न किसी रुप में ज्योतिष विद्यमान रहा है पूर्वी पश्चिमी दोनों ही संस्कृतियों पर ज्योतिष का प्रभाव दिखाई देता है | 

पूर्व में ज्योतिष व खगोल शास्त्र एक ही विषय माने जाते थे एवं जैसे-जैसे विज्ञान का विकास हुआ, खगोल शास्त्र एक स्वतंत्र विज्ञान के रूप में नया विषय बन गया |

प्राचीन काल में ग्रह, नक्षत्र और अन्‍य खगोलीय पिण्‍डों का अध्‍ययन करने के विषय को ही ज्योतिष कहा गया था। इसके गणित भाग के बारे में तो बहुत स्पष्टता से कहा जा सकता है कि इसके बारे में वेदों में स्पष्ट गणनाएं दी हुई हैं।

ज्योतिष के मुख्यतः दो भाग है 1.गणित- mathematical.    2.फलित - Predictive part.

1.गणित: - यह ज्योतिष का वह भाग है जिसके द्वारा ग्रहोँ की आकाशीय स्थिति ज्ञात करने के लिए प्रयुक्त होता है। गणितीय प्रक्रिया से कुंडली बनाई जाती है और कुंडली व्यक्ति के जन्म के समय मे ग्रहोँ की आकाशीय स्थिति का मानचित्र ही होती है।

2.फलित: - व्यक्तियोँ के जन्म कुंडली के आधार पर उनके भूत, वर्तमान एवं भविष्य का वर्णन करने की प्रक्रिया को फलित कहते है अर्थात फलित ज्योतिष - Predictive astrology.

• खगोल शास्त्रः- खगोल शास्त्र वह विज्ञान है जिसके अन्तर्गत पृथ्वी व उसके बाहर अन्तरिक्ष में घटित होने वाली घटनाओं का अध्ययन, अवलोकन, विश्लेषण किया जाता है जिसके अन्तर्गत - ग्रहों की गति, स्थिति, स्थान, ग्रहण, तारों के बारे में, सूर्य/चंद्रमा का उदय / अस्त, व अन्य खगोलीय घटनाएं सम्मिलित हैं। क्योंकि व्यक्ति को सूर्य चन्द्र के उदय अस्त, ग्रहण, ग्रहों की स्थिति आदि की जानकारी पन्चांग से ही प्राप्त होती है|

पश्चिम में 15वीं सदी में गैलीलियों के समय तक धारणा रही कि पृथ्वी स्थिर है तथा सूर्य उसका चक्कर लगाता है परन्तु आर्य भट्ट ने 4थी सदी में ही भूमि अपने अक्ष पर घूमती है,

इसका विवरण निम्न प्रकार से दिया :-

अनुलोमगतिनौंस्थ: पश्यत्यचलम्‌ विलोमंग यद्वत्‌।
अचलानि भानि तद्वत्‌ सम पश्चिमगानि लंकायाम्‌॥ - (आर्यभट्टीय गोलपाद-9)

अर्थात्‌ - नाव में यात्रा करने वाला जिस प्रकार किनारे पर स्थिर रहने वाली चट्टान, पेड़ इत्यादि को विरुद्ध दिशा में भागते देखता है, उसी प्रकार अचल नक्षत्र लंका में सीधे पूर्व से पश्चिम की ओर सरकते देखे जा सकते हैं।

भ पंजर: स्थिरो भू रेवावृत्यावृत्य प्राति दैविसिकौ।
उदयास्तमयौ संपादयति नक्षत्रग्रहाणाम्‌॥

अर्थात्‌- तारा मंडल स्थिर है और पृथ्वी अपनी दैनिक घूमने की गति से नक्षत्रों तथा ग्रहों का उदय और अस्त करती है।

भूमि गोलाकार होने के कारण विविध नगरों में रेखांतर होने के कारण अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग समय पर सूर्योदय व सूर्यास्त होते हैं। इसे आर्य भट्ट ने ज्ञात कर लिया था |

उदयो यो लंकायां सोस्तमय: सवितुरेव सिद्धपुरे।
मध्याह्नो यवकोट्यां रोमकविषयेऽर्धरात्र: स्यात्‌॥ (आर्यभट्टीय गोलपाद-13)

अर्थात्‌ - जब लंका में सूर्योदय होता है तब सिद्धपुर में सूर्यास्त हो जाता है। यवकोटि में मध्याह्न तथा रोमक प्रदेश में अर्धरात्रि होती है।

आर्य भट्ट ने सूर्य से विविध ग्रहों की दूरी के बारे में बताया है। वह आजकल के माप से मिलता-जुलता है।

सौर मंडल – सौर मंडल में 9 ग्रहों में अरूण (यूरेनस), वरुण (नेपच्यून) और यम (प्लूटो) को प्राचीन ज्योतिष में नहीं गिना गया है (ऐसा माना गया है कि इनसे आती हुई किरणें मनुष्य जीवन को बहुत प्रभावित नहीं करते या इनका प्रभाव नगण्य है) चंद्रमा और दो छाया ग्रह राहु, केतु वास्तव में ग्रह नहीं है बल्कि गणितीय गणनाओं से आई सूर्य और चंद्रमा कि कक्षाओं के मिलान बिंदु हैं|

शुक्र और बुध, पृथ्वी और सूर्य के मध्य आते हैं अतः इन्हें “आतंरिक ग्रह” (Inner Planets or Inferior Plantes) कहा जाता है |

मंगल, गुरु और शनि पृथ्वी की कक्षाओं से बाहर की तरफ आकाश में स्थित हैं अतः इन्हें “बाहरी ग्रह”(Outer Palnets or Superior Planets) कहते हैं |

पृथ्वी अपने अक्ष पर और सूर्य के चारों ओर लगातार घूमती है | इसकी गति 30 कि,मी. / सेकंड या 1600 कि.मी./ मिनट या 966000000 कि.मी./ वर्ष है |

पृथ्वी अपने अक्ष से 23.5० झुकी हुई है | धरती अपने अक्ष पर इस प्रकार झुकी हुई है जिससे कि इसका उत्तरी सिरा हमेशा उत्तरी ध्रुव तारे के सामने रहता है | जहाँ पर पृथ्वी के अक्ष के उत्तरी और दक्षिणी सिरे पृथ्वी की सतह पर मिलते हैं, उनको ही उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव कहा जाता है |



भूमध्य रेखा – 

भू मध्य - अर्थात पृथ्वी के बीचो बीच
यदि पृथ्वी के मध्य से जाता हुआ यदि एक Plan खींचे जो पृथ्वी के अक्ष से लम्बवत (Perpendicular) हो तो वो पृथ्वी की सतह को जब काटेगा तो वह एक वृत्त होगा, जिसे पृथ्वी कि भूमध्य रेखा कहते हैं |


यदि उपरोक्त चित्र को या विधान को हम आकाश में प्रक्षेपित करें तो –

१. भूगोलीय भूमध्य रेखा                     आकाशीय विषुव या नाडी वृत्त / Celestial Equator 

२. भूगोलीय रेखांश / Terestrial Longitude     आकाशीय रेखांश / Celestial Longitude

३. भूगोलीय देशान्तर / Terestrial Latitude     आकाशीय देशान्तर / Celestial Latitude 

की तरह कार्य करता है यहाँ यह बता देना आवश्यक है आकाश में एक रेखा और भी है जिस पर सूर्य भ्रमण करता दिखाई देता है वास्तव में यह पृथ्वी का भ्रमण पथ है इसे रवि पथ या सूर्य पथ या क्रान्ति वृत्त भी कहते है अब पृथ्वी पर पूर्व व् पश्चिम का निश्चय इसी रेखांश से होता है इसके पूर्व में 180 रेखाएं तथा पश्चिम में भी 180 रेखाएं अंकित की गयी हैं 180 वीं रेखा सम है जो नितान्त पूर्व भी है और नितान्त पश्चिम भी , यह रेखा अमेरिका में होनोलुलु नाम के शहर से गुजरती है इसी रेखा को तिथि रेखा या डेट लाइन कहा जाता है पृथ्वी पर इस रेखा का सूर्योदय पूरी पृथ्वी का सूर्योदय माना  जाता है जबकि ग्रीनविच में उस समय मध्य रात्रि होती है इसी कारण से मध्य रात्रि से तिथि में परिवर्तन होता है

पृथ्वी के अक्ष का तिरछापन – पृथ्वी अपनी जिस अक्ष पर घुमती है वह 23 ½ ० का कोण है वसंत सम्पात ( V.E.) व् ( A.E.) बिन्दुओं पर क्रान्ति वृत्त तथा विषवुत वृत्त के बीच यही कोण है


उत्तरी गोलार्ध एवं दक्षिणी गोलार्ध – उस plane के उत्तरी भाग को उत्तरी गोलार्ध व दक्षिणी भाग को दक्षिणी गोलार्ध कहते हैं |

रेखांश (Longitudes) एवं अक्षांश (Latitude) – पृथ्वी की सतह को सामान भागों में Vertical एवं Horizontal भागों में बांटने को रेखांश व् अक्षांश कहते हैं | अक्षांश (अक्ष का अंश) horizontal lines एवं रेखांश Vertical lines को कहते हैं | इसे आप पृथ्वी के co-ordinates भी कह सकते हैं|

360० अक्षांश एवं 360० रेखांश मिला कर 1०  का एक Post बनाते हैं जो पूरा वर्ग (square) नहीं होता क्योंकि पृथ्वी पूरी गोल नहीं है | पृथ्वी कि परिधि 40343 कि.मी. है अतः 1० का वर्ग 110 कि.मी.x 110 कि.मी. का होता है और उस भाग में जो शहर आते हैं उन्हें उसके रेखांश और अक्षांश से ही निकालते हैं और ये रेखांश या अक्षांश एक दूसरे से पूरी तरह सामानांतर (parallal) नहीं होती क्योंकि पृथ्वी कि भौगोलिक रचना ऐसी नहीं है | रेखांश को देशांतर भी कहते हैं |
20.5० अंश उत्तरी अक्षांश रेखा को कर्क रेखा तथा 23.5० अंश दक्षिणी अक्षांश रेखा को मकर रेखा कहते हैं |


मानक मध्यान्ह रेखा या मुख्य मध्यान्ह रेखा (Standard Meridian) – प्रत्येक देश का फैलाव उत्तर व् दक्षिण की ओर ही नहीं होता बल्कि पूर्व और पश्चिम में भी होता हो | जो देश पूर्व में होंगे वहां मध्यान्ह पहले होगा बजाय उनके जो पश्चिम में होंगे | इस कारण पूर्व वाले स्थानों का स्थानीय समय पश्चिम वाले स्थानो से अधिक होगा | इससे समस्या यह आती है कि पूर्व वाला समय कुछ बताएगा और पश्चिम वाला कुछ और बताएगा | सांसारिक व्यवहार गड़बड़ा जायेगा | इस का हल यह निकाला गया कि एक देश और अधिक विस्तार वाले देशों को क्षेत्रों में बांटकर एक क्षेत्र की एक मुख मध्यान्ह रेखा/मानक मध्यान्ह रेखा हो और उस स्थान का स्थानीय समय उस सारे देश या क्षेत्र में मान्य हो अर्थात उस समयानुसार ही उस देश या क्षेत्र के सारे सांसारिक कार्य संपन्न किये जायेंगे 

प्रधान मध्यान्ह रेखा या प्रथम मध्यान्ह रेखा (Prime Meridian) – सारी रेखांश को मापने के लिए एक मध्य रेखांश चुना गया है जो ग्रीनविच से होते हुए जाता है | 

आकाशीय गोल या खगोल (celestial Sphere) – जिस प्रकार हम किसी गोल गुब्बारे को फुलाते हैं तो वह छोटे से बड़ा फिर और बड़ा हो जाता है, उसी प्रकार पृथ्वी को अनन्त आकाश में फैलाने पर जो गोला बनेगा उसे आकाशीय गोला या खगोल कहते हैं | इस खगोल का केंद्र पृथ्वी का केंद्र होगा |


कान्तिवृत्त (Ecliptic) – सूर्य के तारों के बीच एक वर्ष के आभासीय भ्रमण मार्ग को इसकी कक्षा कहते हैं | जब इस कक्षा को खगोल में फैलाया जावे तो खगोल के ताल पर एक बड़ा वृत्त बनता है उसे कान्तिवृत्त कहते हैं | आधुनिक विज्ञान में पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करता है न कि सूर्य पृथ्वी की (इसको टाल्मी ने माना कि जिसे हम सूर्य का आभासीय भ्रमण कहते हैं वह पृथ्वी का भी आभासीय भ्रमण हो सकता है किन्तु यहाँ हम आधुनिक विज्ञान को ही प्रमाण मानेगे ) इस कारण क्रांतिवृत्त की परिभाषा यह भी होती है कि पृथ्वी के वार्षिक भ्रमण मार्ग को अनन्त आकाश में फैलाने पर जिन स्थानों पर वह खगोल को काटे उस वृत्त को कान्तिवृत्त कहते हैं | यह कान्तिवृत्त विषुववृत्त (celestial Equator) पर 2327’ का कोण बनाता है |


भचक्र या राशिचक्र – कान्तिवृत्त के दोनों ओर उत्तर और दक्षिण में  9 की पट्टी को भचक्र कहते हैं | इसमें वृत्त पर कान्तिवृत्त के 9० उत्तर में और व् ल कान्तिवृत्त के 9 दक्षिण में है | इसी पट्टी में चंद्रमा व् सारे ग्रह भ्रमण करते हैं | 

भोगांश (celestial Longitude) – कान्तिवृत्त के ध्रुवों को कदम्ब कहते हैं |  कदम्बों को मिलाने वाले बड़े वृत्त कान्तिवृत्त को लम्बवत काटते हैं | निम्न आकृति  में प और फ कदम्ब हैं | आकाशीय पिंड की कान्तिवृत्त पर मेष के प्रथम बिंदु से कोणीय दूरी को भोगांश कहते हैं | इसे इस प्रकार समझे कि आकाशीय पिंड से कान्तिवृत्त के तल पर खगोल कि सतह के साथ लम्बवत चाप डालें और जिस स्थान पर वह कान्तिवृत्त को काटे, उस स्थान की मेष के प्रथम बिंदु से कोणीय दूरी भोगांश होती है 

विक्षेप या शर (celestial Latitude) – आकाशीय पिंड से कान्तिवृत्त पर लम्बवत चाप की कोणीय दूरी को विक्षेप (शर) कहते हैं |

विशुवांश – आकाशीय पिंड से विषुवत वृत्त पर लम्बवत चाप जहाँ मिले, उस बिंदु की सायन मेष का प्रथम बिंदु से कोणीय दूरी को विशुवांश कहते हैं | यह विषुवत वृत्त का भाग या अंश होने से विशुवांश कहलाता है |


क्रान्ति (Declination) – आकाशीय पिंड से विषुवत वृत्त पर लम्बवत चाप जो कोण पृथ्वी के केंद्र (या खगोल के केंद्र) पर बनावे, वह कोण क्रांति होती है अर्थात आकाशीय पिंड की विषुवत वृत्त से लम्बवत कोणीय दूरी को क्रांति कहते हैं |



ऊपर कि आकृति में अ ब विषुवत वृत्त हैं |

क ख कान्तिवृत्त है |

म और त मेष व् तुला राशि के प्रथम बिंदु हैं | आ एक आकाशीय पिंड है |

उ और द विषुवत वृत्त के ध्रुव हैं | प और फ कान्तिवृत्त के ध्रुव हैं | उ आ च विषुवत वृत्त पर लम्बवत चाप है | प आ 
छ कान्तिवृत्त पर लम्बवत चाप है |

म छ चाप का कोण इस आकाशीय पिंड का भोगांश है |

आ छ चाप का कोण इसका विक्षेप है |

म च चाप का कोण इसका विशुवांश है |

ऊ च चाप का कोण इसकी क्रांति है |

क्षितिज वृत्त (Horizon) – दृष्टा या देखने वाला या प्रेक्षक को जहाँ पृथ्वी और आकाश मिलते हुए दिखाई देते हैं, उसे अनन्त आकाश में फैलाने पर जहाँ वह खगोल या आकाशीय गोले को मिले, वह वृत्त क्षितिज वृत्त कहलाता है| 

ग्रहों का दिगंश- ग्रह के उन्नतांश में लम्ब की कोणीय दुरी एक अन्य बिंदु से जहाँ यामोत्त्तर वृत्त उत्तरी दिशा में क्षितिज से मिलता है उसे ग्रह का दिगंश कहते हैं|

शिरोबिंदु (Zenith) – प्रेक्षक जहाँ खड़ा हो उसके ठीक सिर के ऊपर जो रेखा पृथ्वी के केंद्र से सिर से होती हुई खगोल को मिले वह बिंदु शिरोबिंदु कहलाता है | यह क्षितिज वृत्त का एक ध्रुव है | यह बिंदु सिर के ऊपर होता है |

अधोबिंदु या पाताल (Nadir) – प्रेक्षक जिस स्थान पर खड़ा हो तब उसके पैरों से और पृथ्वी के केंद्र से होती हुई रेखा खगोल को जिस स्थान पर काटे, वह बिंदु अधोबिंदु कहलाता है | यह ठीक पैर के नीचे होता है | यह क्षितिज वृत्त का दूसरा ध्रुव है |




उद्वृत्त (Vertical) – किसी स्थान के शिरोबिंदु और अधोबिंदु को आकाशीय गोले के ताल पर मिलाने से जो बड़े वृत्त बनते हैं, उन्हें उद्वृत्त कहते हैं | यह क्षितिज वृत्त पर लम्बवत होते हैं |

याम्योत्तर वृत्त (celestial Meridian) – आकाशीय ध्रुवों और प्रेक्षक के शिरोबिंदु से जो वृत्त खगोल पर बनता है, उसे दर्शक का याम्योत्तर वृत्त कहते हैं | यह क्षितिज वृत्त को उत्तर व् दक्षिण बिन्दुओं को लम्बवत काटता है | दक्षिण को यम भी कहते हैं | इस प्रकार जो वृत्त किसी स्थान के दक्षिण से उत्तर तक शिरोबिंदु से होता हुआ जाए वह याम्योत्तर वृत्त हुआ |

उन्नतांश (Altitude) – किसी आकाशीय पिंड की प्रेक्षक के क्षितिज वृत्त से लम्बवत कोणीय ऊंचाई को उन्नतांश कहते हैं अर्थात दर्शक को वह पिंड किस कोण की ऊंचाई पर दिखाई दे रहा है | जिस उद्वृत्त पर वह पिंड है, उस उद्वृत्त को चाप का कोण जो वह पिंड से क्षितिज वृत्त तक बना रही है उसे उन्नतांश कहते हैं |




ग्रहों की क्रान्ति या दिग्पात  – किसी ग्रह की विषुवत रेखा पर लम्बवत कोणीय दुरी उस ग्रह की क्रान्ति या दिग्पात कहलाती है. अक्षांश और दिग्पात दोनों लम्बवत कोणीय दुरी है परन्तु अक्षांश में यह लम्ब क्रांतिवृत पर डाला जाता है और और दिग्पात में विषुवत रेखा पर|

होरा कोण – पृथ्वी ३६०० में अपना एक चक्कर लगाती है अर्थात ३६०० =२४ घंटे या १५० = १ घंटा | इस प्रकार हम कह सकते हैं सूर्य १ घंटे में १५० घूमता हैं और कहें तो ४ मिनट में सूर्य १० घूमता है | इस प्रकार सूर्य के अंशों को घंटे में बदलने पर समय का माप आ जाता है | इसलिए यह सूर्य का समय कोण या होरा कोण कहलाता है |

नक्षत्र काल या सम्पात काल (Sidereal Period) – ग्रह या आकाशीय पिंड एक स्थिर तारे के सामने से चलकर पुनः उसी तारे के सामने आने में जितना समय लेता है वह उसका नक्षत्र काल कहलाता है |

युति (Conjunction) – बाह्य ग्रहों और पृथ्वी के मध्य सूर्य हो और ग्रह व् सूर्य दोनों के अंश सामान हों तब ग्रह की युति होती है |

अंतर्युती या निकृष्ट युति (inferior Conjunction) – जब कोई आतंरिक ग्रह (बुध और शुक्र) सूर्य और पृथ्वी के मध्य में हो अर्थात ग्रह के एक ओर सूर्य और दूसरी ओर पृथ्वी हो और सूर्य व् ग्रह दोनों के अंश सामान हों वह उस ग्रह की अंतर्युती होती है |

बहिर्युती (Superior Conjunction) – जब आतंरिक ग्रह और सूर्य दोनों के अंश सामान हों और ग्रह व पृथ्वी के मध्य सूर्य हो तब वह उस ग्रह की बहिर्युती होती है |

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