पंचांग यानि पंच + अंग = पांच अंग,
हिन्दू काल-गणना की रीति से निर्मित पारम्परिक कैलेण्डर या कालदर्शक को पंचांग कहते हैं। पाँच प्रमुख भागों से बने होने के कारण इसे पंचांग कहा जाता है, पञ्चनग के पांच अंग है- तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण। इसकी गणना के आधार पर हिंदू पंचांग की तीन धाराएँ हैं- पहली चंद्र आधारित, दूसरी नक्षत्र आधारित और तीसरी सूर्य आधारित कैलेंडर पद्धति।
पंचांग के मुख्यत: तीन सिद्धांत प्रयोग में लाये जाते हैं, -
सूर्य सिद्धांत - अपनी विशुद्धता के कारण सारे भारत में प्रयोग में लाया जाता है।
आर्य सिद्धांत - त्रावणकोर, मलावार, कर्नाटक में माध्वों द्वारा, मद्रास के तमिल जनपदों में प्रयोग किया जाता है, एवं
ब्रह्म सिद्धांत - गुजरात एवं राजस्थान में प्रयोग किया जाता है।
पंचांग दिन को नामांकित करने की एक प्रणाली है। पंचांग के चक्र को खगोलीय तत्वों से जोड़ा जाता है। बारह मास का एक वर्ष और 7 दिन का एक सप्ताह रखने का प्रचलन विक्रम संवत से शुरू हुआ। महीने का हिसाब सूर्य व चंद्रमा की गति पर रखा जाता है।
एक साल में 12 महीने होते हैं। प्रत्येक महीने में 15 दिन के दो पक्ष होते हैं- शुक्ल और कृष्ण। प्रत्येक साल में दो अयन होते हैं। इन दो अयनों की 12 राशियों में 27 नक्षत्र भ्रमण करते रहते हैं।
यह 12 राशियाँ बारह सौर मास हैं। जिस दिन सूर्य जिस राशि मे प्रवेश करता है उसी दिन की संक्रांति होती है।
पूर्णिमा के दिन चंद्रमा जिस नक्षत्र मे होता है उसी आधार पर महीनों का नामकरण हुआ है।
चंद्र वर्ष, सौर वर्ष से 11 दिन 3 घड़ी 48 पल छोटा है। इसीलिए हर 3 वर्ष मे इसमे एक महीना जोड़ दिया जाता है जिसे अधिक मास कहते हैं।
एक दिन को तिथि कहा गया है जो पंचांग के आधार पर उन्नीस घंटे से लेकर चौबीस घंटे तक की होती है। चंद्र मास में 30 तिथियाँ होती हैं, जो दो पक्षों में बँटी हैं। शुक्ल पक्ष में एक से चौदह और फिर पूर्णिमा आती है। पूर्णिमा सहित कुल मिलाकर पंद्रह तिथि।
कृष्ण पक्ष में एक से चौदह और फिर अमावस्या आती है। अमावस्या सहित पंद्रह तिथि।
तिथि
चन्द्रमा की एक कला को एक तिथि माना गया है | अमावस्या के बाद प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक की तिथियाँ शुक्लपक्ष और पूर्णिमा से अमावस्या तक की तिथियाँ कृष्ण पक्ष कहलाती हैं
तिथियों के नाम निम्न हैं-
पूर्णिमा (पूरनमासी), प्रतिपदा (पड़वा), द्वितीया (दूज), तृतीया (तीज), चतुर्थी (चौथ), पंचमी (पंचमी), षष्ठी (छठ), सप्तमी (सातम), अष्टमी (आठम), नवमी (नौमी), दशमी (दसम), एकादशी (ग्यारस), द्वादशी (बारस), त्रयोदशी (तेरस), चतुर्दशी (चौदस) और अमावस्या (अमावस)।
1|6|11 नंदा,
2|7|12 भद्रा,
3|8|13 जया,
4|9|14 रिक्ता और
5|10|15 पूर्णा तथा
4|6|8|9|12|14 तिथियाँ पक्षरंध्र संज्ञक हैं
तिथियों का निर्धारण चन्द्रमा की कलाओं के आधार पर होता है। ये तिथियाँ चन्द्रमा की 16 कलाओं के आधार पर 16 प्रकारों में ही हैं। इसमें शुक्ल व कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से चतुर्दशी पर्यन्त 14-14 तिथियाँ तथा पूर्णिमा व अमावस्या सहित तीस तिथियों को मिलाकर एक चान्द्रमास का निर्माण होता है। शुक्ल पक्ष की 15वीं तिथि पूर्णिमा एवं कृष्ण पक्ष की 15वीं तिथि अमावस्या होती है।
एक तिथि का भोग काल सामान्यत: 60 घटी का होता है। किसी तिथि का क्षय या वृद्धि होना सूर्योदय पर निर्भर करता है। कोई तिथि, सूर्योदय से पूर्व आरंभ हो जाती है और अगले सूर्योदय के बाद तक रहती है तो उस तिथि की वृद्धि हो जाती है अर्थात् वह वृद्धि तिथि कहलाती है लेकिन यदि कोई तिथि सूर्योदय के बाद आरंभ हो और अगले सूर्योदय से पूर्व ही समाप्त हो जाती है तो उस तिथि का क्षय हो जाता है अर्थात् वह क्षय तिथि कहलाती है।
तिथि क्यों घटती-बढ़ती है ?
तिथियों का निर्धारण सूर्य और चन्द्रमा की परस्पर गतियों के आधार पर होता है। राशि चक्र में 360° होते हैं साथ ही तिथियों की संख्या 30 हैं अत: एक तिथि का मान।
360/ 30 = 12° = 1 तिथि
इसका तात्पर्य यह है कि जब सूर्य और चन्द्रमा एक स्थान (एक ही अंश) पर होते हैं तब अमावस्या तिथि होती है। इस समय चन्द्रमा, सूर्य के निकट होने के कारण दिखाई नहीं देते हैं या वे अस्त होते हैं तथा सूर्य और चंद्रमा का अंतर शून्य होता है। चन्द्रमा की दैनिक गति सूर्य की दैनिक गति से अधिक होती है। चन्द्रमा एक राशि लगभग सवा दो दिन में पूरी करते हैं जबकि सूर्य 30 दिन लगाते हैं।
सूर्य, चन्द्रमा का अन्तर जब शून्य से अधिक बढ़ने लगता है तो प्रतिपदा प्रारम्भ हो जाती है और जब यह अंतर 12° होता है तो प्रतिपदा समाप्त हो जाती है और चंद्रमा उदय हो जाते हैं। तिथि वृद्धि और तिथि क्षय होने का मुख्य कारण यह होता है कि एक तिथि 12° की होती है जिसे चन्द्रमा 60 घटी में पूर्ण करते हैं परन्तु चन्द्रमा की यह गति घटती-बढ़ती रहती है। कभी चन्द्रमा तेजी से चलते हुए (एक तिथि) 12° की दूरी को 60 घटी से कम समय में पार करते हैं तो कभी धीरे चलते हुए 60 घटी से अधिक समय में पूर्ण करते हैं। जब एक तिथि (12°) को पार करने में 60 घटी से अधिक समय लगता है तो वह तिथि बढ़ जाती है और जब 60 घटी से कम समय लगता है तो वह तिथि क्षय हो जाती है अर्थात् जिस तिथि में दो बार सूर्योदय हो जाए तो उस तिथि की वृद्धि और जिस तिथि में एक बार भी सूर्योदय नहीं हो उसका क्षय हो जाता है। तिथियों की क्षय और वृद्धि को हम निम्न प्रकार से समझ सकते हैं :-
वृद्धि तिथि:
जब किसी तिथि में दो बार सूर्योदय हो जाता है तो उस तिथि की वृद्धि हो जाती है। जैसे - किसी रविवार को सूर्योदय प्रात: 5:48 पर हुआ और इस दिन सप्तमी तिथि सूर्योदय के पूर्व प्रात: 5:32 बजे प्रारंभ हुई और अगले दिन सोमवार को सूर्योदय (प्रात: 5:47) के बाद प्रात: 7:08 तक रही तथा उसके बाद अष्टमी तिथि प्रारंभ हो गई। इस तरह रविवार और सोमवार को दोनों दिन सूर्योदय के समय सप्तमी तिथि होने से, सप्तमी तिथि की वृद्धि मानी जाती है। सप्तमी तिथि का कुल मान 25 घंटे 36 मिनिट आया जो कि औसत मान 60 घटी या 24 घंटे से अधिक है। ऎसी परिस्थिति में किसी भी तिथि की वृद्धि हो जाती है।
तिथि क्षय:
जब किसी तिथि में एक बार भी सूर्योदय नहीं हो तो उस तिथि का क्षय हो जाता है। जैसे- किसी शुक्रवार सूर्योदय प्रात: 5:44 पर हुआ और इस दिन एकादशी तिथि सूर्योदय के बाद प्रात: 6:08 पर समाप्त हो गई तथा द्वादशी तिथि प्रारंभ हो गई और द्वादशी तिथि आधी रात के बाद 27 बजकर 52 मिनिट (अर्थात् अर्द्धरात्रि के बाद 3:52) तक रही तत्पश्चात् त्रयोदशी तिथि प्रारंभ हो गई। द्वादशी तिथि में एक भी बार सूर्योदय नहंी हुआ। शुक्रवार को सूर्योदय के समय एकादशी और शनिवार को सूर्योदय (प्रात: 5:43) के समय त्रयोदशी तिथि रही, अत: द्वादशी तिथि का क्षय हो गया। इस प्रकार जब किसी तिथि में सूर्योदय नहीं हो तो उस तिथि का क्षय हो जाता है। क्षय तिथि को पंचांग के तिथि वाले कॉलम में भी नहीं लिखा जाता जबकि वृद्धि तिथि को दो बार लिखा जाता है।
वार
एक सप्ताह में सात दिन होते हैं:- रविवार, सोमवार, मंगलवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार और शनिवार।
रवि आदि सप्त वारों की प्रकृति एवम उनमें किए जाने वाले कार्यों का वर्णन पुराणों ,मुहूर्त ग्रंथों एवम फलित ज्योतिष ग्रंथों के अनुसार निम्नलिखित अनुसार है ———
नक्षत्र
आकाश में तारामंडल के विभिन्न रूपों में दिखाई देने वाले आकार को नक्षत्र कहते हैं। मूलत: नक्षत्र 27 माने गए हैं। ज्योतिषियों द्वारा एक अन्य अभिजित नक्षत्र भी माना जाता है। चंद्रमा उक्त सत्ताईस नक्षत्रों में भ्रमण करता है।
आकाश में तारा-समूह को नक्षत्र कहते हैं। साधारणतः यह चन्द्रमा के पथ से जुडे हैं, पर वास्तव में किसी भी तारा-समूह को नक्षत्र कहना उचित है। ऋग्वेद में एक स्थान सूर्य को भी नक्षत्र कहा गया है। अन्य नक्षत्रों में सप्तर्षि और अगस्त्य हैं
चंद्रमा २७-२८ दिनों में पृथ्वी के चारों ओर घूम आता है। खगोल में यह भ्रमणपथ इन्हीं तारों के बीच से होकर गया हुआ जान पड़ता है। इसी पथ में पड़नेवाले तारों के अलग अलग दल बाँधकर एक एक तारकपुंज का नाम नक्षत्र रखा गया है। इस रीति से सारा पथ इन २७ नक्षत्रों में विभक्त होकर 'नक्षत्र चक्र' कहलाता है। नीचे तारों की संख्या और आकृति सहित २७ नक्षत्रों के नाम दिए जाते हैं—
इन २७ नक्षत्रों के अतिरिक्त 'अभिजित्' नाम का एक और नक्षत्र पहले माना जाता था पर वह पूर्वाषाढ़ा के भीतर ही आ जाता है, इससे अब २७ ही नक्षत्र गिने जाते हैं। इन्हीं नक्षत्रों के नाम पर महीनों के नाम रखे गए हैं। महीने की पूर्णिमा को चंद्रमा जिस नक्षत्र पर रहेगा उस महीने का नाम उसी नक्षत्र के अनुसार होगा, जैसे कार्तिक की पूर्णिमा को चंद्रमा कृत्तिका वा रोहिणी नक्षत्र पर रहेगा, अग्रहायण की पूर्णिमा को मृगशिरा वा आर्दा पर; इसी प्रकार और समझिए।
योग
योग 27 प्रकार के होते हैं। सूर्य-चंद्र की विशेष दूरियों की स्थितियों को योग कहते हैं। दूरियों के आधार पर बनने वाले 27 योगों के नाम क्रमश: इस प्रकार हैं:-
विष्कुम्भ, प्रीति, आयुष्मान, सौभाग्य, शोभन, अतिगण्ड, सुकर्मा, धृति, शूल, गण्ड, वृद्धि, ध्रुव, व्याघात, हर्षण, वज्र, सिद्धि, व्यातीपात, वरीयान, परिघ, शिव, सिद्ध, साध्य, शुभ, शुक्ल, ब्रह्म, इन्द्र और वैधृति।
27 योगों में से कुल 9 योगों को अशुभ माना जाता है तथा सभी प्रकार के शुभ कामों में इनसे बचने की सलाह दी गई है। ये अशुभ योग हैं: विष्कुम्भ, अतिगण्ड, शूल, गण्ड, व्याघात, वज्र, व्यतीपात, परिघ और वैधृति। कुल मिला कर २७ योग होते हैं | जैसे कि अश्विनी नक्षत्र के आरम्भ से सूर्य और चंद्रमा दोनों मिल कर ८०० कलाएं आगे चल चुकते हैं तब एक योग बीतता है, जब १६०० कलाएं आगे चलते हैं तब २, इसी प्रकार जब दोनों १२ राशियों – २१६०० कलाएं अश्विनी से आगे चल चुकते हैं तब २७ योग बीतते हैं | सूर्य और चंद्रमा के स्पष्ट स्थानों को जोड़ कर तथा कलाएं बना कर ८०० का भाग देने पर गत योगों की संख्या निकल आती है | शेष से यह अवगत किया जाता है कि वर्तमान योग की कितनी कलाएं बीत गयी हैं | शेष को ८०० में से घटाने पर वर्तमान योग की गम्य कलाएं आती हैं | इन गत या गम्य कलाओं को ६० से गुना कर के सूर्य और चंद्रमा की स्पष्ट दैनिक गति के योग से भाग देने पर वर्तमान योग की गत और गम्य घतिकाएं आती हैं |
२७ योगों के नाम इस प्रकार हैं |
`१. विष्कम्भ २. प्रीति ३. आयुष्मान ४. सौभाग्य
५. शोभन ६. अतिगंड ७. सुकर्मा ८. धृति
९. शूल १०. गंड ११. वृद्धि १२. ध्रुव
१३. व्याघात १४. हर्षण १५. वज्र १६. सिद्धि
१७. व्यतिपात १८. वरीयन १९. परिघ २०. शिव
२१. सिद्ध २२. साध्य २३. शुभ २४. शुक्ल
२५. ब्रह्म २६. एन्द्र २७. वैधृति
योगों के स्वामी -
परिध योग का आधा भाग त्याज्य है, उत्तरार्ध शुभ है | विष्कम्भ योग की प्रतम पांच घटिकाएं, शूल योग की प्रथम सात घटिकाएं, गंड और व्याघात योग की प्रथम छह घटिकाएं, हर्षण और वज्र योग की नौ घटिकाएं एवं वैधृति और व्यतिपात योग समस्त परित्यज्य है |
करण
तिथि के आधे भाग को करण कहते हैं। यह पंचांग का पांचवां अंग है। एक तिथि में दो करण होते हैं। करणों की कुल संख्या 11 है- बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज, विष्टि ये सातों चर करण तथा शकुनि, नाग, चतुष्पद व किंस्तुघ्न ये चार स्थिर करण होते हैं।
कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी (14) के उत्तरार्ध में शकुनि,
अमावस्या के पूर्वार्ध में चतुष्पाद,
अमावस्या के उत्तरार्ध में नाग और
शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के पूर्वार्ध में किस्तुघ्न करण होता है।
विष्टि करण को भद्रा कहते हैं। भद्रा में शुभ कार्य वर्जित माने गए हैं।
शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के पूर्वाह्न की आधी तिथि में किस्तुघ्न करण और इसी तरह आधे भाग परार्द्ध में बव करण होता है।
इसी तरह शुक्ल पक्ष द्वितीया में बालव व कौलव,
तृतीया में तैतिल व गर,
चतुर्थी में वणिज व विष्टि,
पंचमी में बव व बालव,
षष्ठी में कौलव व तैतिल,
सप्तमी में गर व वणिज,
अष्टमी में विष्टि व बव,
नवमी में बालव व कौलव,
दशमी में तैतिल व गर,
एकादशी में वणिज व विष्ट,
द्वादशी में बव व बालव,
त्रयोदशी में कौलव व तैतिल,
चतुर्दशी मं गर व वणिज,
पूर्णिमा में विष्टि व बव करण होते हैं।
कृष्ण पक्ष के प्रतिपदा में बालव व कौलव,
द्वितीया में तैतिल व गर,
तृतीया में वणिज व विष्टि,
चतुर्थी बव व बालव,
पंचमी में कौलव व तैतिल,
षष्ठी में गर व वणिज,
सप्तमी में विष्टि,
अष्टमी में बालव व कौलव,
नवमी में तैतिल व गर,
दशमी में वणिज व विष्टि,
एकादशी में बव व बालव,
द्वादशी में कौलव व तैतिल,
त्रयोदशी में गर व वणिज,
चतुर्दशी में विष्टि व शकुनि तथा
अमावस्या में गर व नाग करण होते हैं। विष्टि करण को भद्रा कहते हैं।
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बव करण-
यह बाल अवस्था का, समभाव का है। इसका वाहन सिंह, उपवाहन हाथी, श्वेत वस्त्र धारण करने वाला, आयुध में बंदूक धारण करने वाला, अन्न का भक्षण करने वाला, कस्तूरी का आलेपन करने वाला, देवता जाति का, पुन्नाग पुष्प की रुचि वाला, सुवर्ण का नूपुर पहनने वाला और गंगा स्नान का आनंद लेने वाला है।
बालव करण-
यह कुमार अवस्था का करण है। यह बैठी हुई स्थिति में है। मध्यम फल वाला है। मुख्य वाहन ब्याघ्र है, उपवाहन अश्व है। फल भयकारी है। वस्त्र पीला, उपवस्त्र लाल है। आयुध गदा, भक्ष्य पदार्थ पायस, लेपन कुंकुम, जाति भूत का, जाती नामक पुष्प को धारण करने वाला, चांदी का ककण भी है व यमुना स्नान का इच्छुक है।
कौलव करण-
यह उर्ध्व स्थिति को प्राप्त करने वाला, श्रेष्ठ फल, वराह वाहन, उपवाहन वृषभ, फल पीड़ादायक, हरित मुख्य वस्त्र, उपवस्त्र चित्रित, खड्ग हथियार, अन्न का भक्षण करने वाला, मोती धारण करने वाला, अधिक उम्र वाला और सरस्वती स्नान का इच्छुक है।
तैतिल करण-
सुप्त अवस्था में रहने वाला, पाप फल वाला, मुख्य वाहन गर्दभ, उपवाहन भेड़ा, तात्कालिक फल उत्तम, पीला वस्त्र वाला, उपवस्त्र भी पीला, हाथ में दण्ड धारण करने वाला, पक्वान्न भक्षण करने वाला, मिट्टी का लेपन, पक्षी जाति का, केतकी पुष्प, कांस्य पात्र वाला, प्रवाल आभूषण, युवा अवस्था का तथा गंगा स्नान का इच्छुक है।
गर करण- प्रौढ़ावस्था का एवं बैठी हुई स्थिति में रहने वाला, मध्यम फल वाला, मुख्य वाहन हाथी, उपवाहन गदर्भ, लक्ष्मी है वाहन का फल, मुख्य वस्त्र लाल, उपवस्त्र नीला, धनुष धारण करने वाला, दुग्ध का भक्षण करने वाला, सुगन्धित वस्तु का आलेपन करने वाला, पशु जाति का, विल्वपत्र से प्रसन्न रहने वाला, लौह व मुकुट पहनने वाला, नर्मदा स्नान का इच्छुक है।
वणिज करण-
बैठी अवस्था का, मध्यम फल वाला, मुख्य वाहन महिष, उपवाहन ऊंट, वाहन फल क्लेश कारक, दही भक्षण करने वाला, महावर का आलेपन, मृग जाति का, मंदार पुष्प को ग्रहण करने वाला, मणि धारण करने वाला, पूर्ण उम्र वाला, कृष्णा नदी में स्नान का इच्छुक है।
विष्टि करण-
यह बैठी हुई अवस्था का है। फल मध्यम, मुख्य वाहन अश्व, उपवाहन सिंह, वाहन फल स्थिरता, मुख्य वस्त्र कृष्ण, उपवस्त्र पीला अंगोछा, कुन्त नाम का आयुध धारण करने वाला, चितान्न भक्षण करने वाला, ब्राह्मण जाति का, दूर्वा से प्रसन्न रहने वाला, गुन्जा पहनने वाला, वृद्ध अवस्था का तथा गोदावरी स्नान का इच्छुक है।
शकुनि करण-
उर्ध्व अवस्था का, फल सामान्य, कुत्ता मुख्य वाहन, उपवाहन शेर, वाहन फल श्रेष्ठ, चितकबरा मुख्य वस्त्र, मृगचर्म उपवस्त्र, पास नाम का हथियार धारण करने वाला, गुड़ का सेवन करने वाला, हरिद्रा का आलेपन, क्षत्रिय जाति का, कमल पुष्प से प्रसन्न रहने वाला, वंध्या अवस्था का व गंगा में स्नान का इच्छुक है।
चतुष्पद करण-
सुप्त अवस्था का, सामान्य फल, मेष मुख्य वाहन, उपवाहन महिष, वाहन फल क्लेश, कंबल मुख्य वस्त्र, लाल वस्त्र उपवस्त्र, अंकुश हथियार, मधु का सेवन करने वाला, कज्जल का आलेपन व वैश्य जाति का, वेला पुष्प लो प्रसन्न व नीलम आभूषण, वंध्या अवस्था का तथा तुंगभद्रा नदी में स्नान का इच्छुक।
नाग करण- सुप्त अवस्था का, सामान्य फल, मुख्य वाहन वृषभ, उपवाहन ब्या,घ्र, वाहन फल स्थिरता, बिना वस्त्र वाला, छाल मुख्य उपवस्त्र, तलवार धारण करने वाला, घृत भक्षण करने वाला, अगर का लेपन करने वाला, शूद्र जाति का, पाटली पुष्प पहनने वाला, भूमि पर सदा रहने वाला, बज्र हथियार धारण करने वाला, पुत्र- पौत्र से संपन्न व कावेरी स्नान का इच्छुक।
किंस्तुघ्न करण-
उर्ध्व अवस्था का, फल सामान्य, मुख्य वाहन मुर्गा, उपवाहन बानर, वाहन फल मृत्यु, धानी रंग का वस्त्र मुख्य वस्त्र, हल्का लाल उपवस्त्र, हथियार बाण, शर्करा का भक्षण करने वाला, कपूर का आलेपन, वर्णशंकर जाति का, जौ का पुष्प धारण करने वाला, सुवर्ण का आभूषण, पूर्ण तेजस्वी अवस्था में रहने वाला व कृष्णा नदी में स्नान का इच्छुक है।
विशेष- सुप्त अवस्था का तथा बैठी हुई करण वाली स्थितियां उत्तम नहीं होतीं। उर्ध्व अवस्था के करण का उत्तम फल होता है।
हिन्दू काल-गणना की रीति से निर्मित पारम्परिक कैलेण्डर या कालदर्शक को पंचांग कहते हैं। पाँच प्रमुख भागों से बने होने के कारण इसे पंचांग कहा जाता है, पञ्चनग के पांच अंग है- तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण। इसकी गणना के आधार पर हिंदू पंचांग की तीन धाराएँ हैं- पहली चंद्र आधारित, दूसरी नक्षत्र आधारित और तीसरी सूर्य आधारित कैलेंडर पद्धति।
पंचांग के मुख्यत: तीन सिद्धांत प्रयोग में लाये जाते हैं, -
सूर्य सिद्धांत - अपनी विशुद्धता के कारण सारे भारत में प्रयोग में लाया जाता है।
आर्य सिद्धांत - त्रावणकोर, मलावार, कर्नाटक में माध्वों द्वारा, मद्रास के तमिल जनपदों में प्रयोग किया जाता है, एवं
ब्रह्म सिद्धांत - गुजरात एवं राजस्थान में प्रयोग किया जाता है।
पंचांग दिन को नामांकित करने की एक प्रणाली है। पंचांग के चक्र को खगोलीय तत्वों से जोड़ा जाता है। बारह मास का एक वर्ष और 7 दिन का एक सप्ताह रखने का प्रचलन विक्रम संवत से शुरू हुआ। महीने का हिसाब सूर्य व चंद्रमा की गति पर रखा जाता है।
एक साल में 12 महीने होते हैं। प्रत्येक महीने में 15 दिन के दो पक्ष होते हैं- शुक्ल और कृष्ण। प्रत्येक साल में दो अयन होते हैं। इन दो अयनों की 12 राशियों में 27 नक्षत्र भ्रमण करते रहते हैं।
यह 12 राशियाँ बारह सौर मास हैं। जिस दिन सूर्य जिस राशि मे प्रवेश करता है उसी दिन की संक्रांति होती है।
पूर्णिमा के दिन चंद्रमा जिस नक्षत्र मे होता है उसी आधार पर महीनों का नामकरण हुआ है।
चंद्र वर्ष, सौर वर्ष से 11 दिन 3 घड़ी 48 पल छोटा है। इसीलिए हर 3 वर्ष मे इसमे एक महीना जोड़ दिया जाता है जिसे अधिक मास कहते हैं।
एक दिन को तिथि कहा गया है जो पंचांग के आधार पर उन्नीस घंटे से लेकर चौबीस घंटे तक की होती है। चंद्र मास में 30 तिथियाँ होती हैं, जो दो पक्षों में बँटी हैं। शुक्ल पक्ष में एक से चौदह और फिर पूर्णिमा आती है। पूर्णिमा सहित कुल मिलाकर पंद्रह तिथि।
कृष्ण पक्ष में एक से चौदह और फिर अमावस्या आती है। अमावस्या सहित पंद्रह तिथि।
तिथि
चन्द्रमा की एक कला को एक तिथि माना गया है | अमावस्या के बाद प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक की तिथियाँ शुक्लपक्ष और पूर्णिमा से अमावस्या तक की तिथियाँ कृष्ण पक्ष कहलाती हैं
तिथियों के नाम निम्न हैं-
पूर्णिमा (पूरनमासी), प्रतिपदा (पड़वा), द्वितीया (दूज), तृतीया (तीज), चतुर्थी (चौथ), पंचमी (पंचमी), षष्ठी (छठ), सप्तमी (सातम), अष्टमी (आठम), नवमी (नौमी), दशमी (दसम), एकादशी (ग्यारस), द्वादशी (बारस), त्रयोदशी (तेरस), चतुर्दशी (चौदस) और अमावस्या (अमावस)।
1|6|11 नंदा,
2|7|12 भद्रा,
3|8|13 जया,
4|9|14 रिक्ता और
5|10|15 पूर्णा तथा
4|6|8|9|12|14 तिथियाँ पक्षरंध्र संज्ञक हैं
तिथियों का निर्धारण चन्द्रमा की कलाओं के आधार पर होता है। ये तिथियाँ चन्द्रमा की 16 कलाओं के आधार पर 16 प्रकारों में ही हैं। इसमें शुक्ल व कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से चतुर्दशी पर्यन्त 14-14 तिथियाँ तथा पूर्णिमा व अमावस्या सहित तीस तिथियों को मिलाकर एक चान्द्रमास का निर्माण होता है। शुक्ल पक्ष की 15वीं तिथि पूर्णिमा एवं कृष्ण पक्ष की 15वीं तिथि अमावस्या होती है।
एक तिथि का भोग काल सामान्यत: 60 घटी का होता है। किसी तिथि का क्षय या वृद्धि होना सूर्योदय पर निर्भर करता है। कोई तिथि, सूर्योदय से पूर्व आरंभ हो जाती है और अगले सूर्योदय के बाद तक रहती है तो उस तिथि की वृद्धि हो जाती है अर्थात् वह वृद्धि तिथि कहलाती है लेकिन यदि कोई तिथि सूर्योदय के बाद आरंभ हो और अगले सूर्योदय से पूर्व ही समाप्त हो जाती है तो उस तिथि का क्षय हो जाता है अर्थात् वह क्षय तिथि कहलाती है।
तिथि क्यों घटती-बढ़ती है ?
तिथियों का निर्धारण सूर्य और चन्द्रमा की परस्पर गतियों के आधार पर होता है। राशि चक्र में 360° होते हैं साथ ही तिथियों की संख्या 30 हैं अत: एक तिथि का मान।
360/ 30 = 12° = 1 तिथि
इसका तात्पर्य यह है कि जब सूर्य और चन्द्रमा एक स्थान (एक ही अंश) पर होते हैं तब अमावस्या तिथि होती है। इस समय चन्द्रमा, सूर्य के निकट होने के कारण दिखाई नहीं देते हैं या वे अस्त होते हैं तथा सूर्य और चंद्रमा का अंतर शून्य होता है। चन्द्रमा की दैनिक गति सूर्य की दैनिक गति से अधिक होती है। चन्द्रमा एक राशि लगभग सवा दो दिन में पूरी करते हैं जबकि सूर्य 30 दिन लगाते हैं।
सूर्य, चन्द्रमा का अन्तर जब शून्य से अधिक बढ़ने लगता है तो प्रतिपदा प्रारम्भ हो जाती है और जब यह अंतर 12° होता है तो प्रतिपदा समाप्त हो जाती है और चंद्रमा उदय हो जाते हैं। तिथि वृद्धि और तिथि क्षय होने का मुख्य कारण यह होता है कि एक तिथि 12° की होती है जिसे चन्द्रमा 60 घटी में पूर्ण करते हैं परन्तु चन्द्रमा की यह गति घटती-बढ़ती रहती है। कभी चन्द्रमा तेजी से चलते हुए (एक तिथि) 12° की दूरी को 60 घटी से कम समय में पार करते हैं तो कभी धीरे चलते हुए 60 घटी से अधिक समय में पूर्ण करते हैं। जब एक तिथि (12°) को पार करने में 60 घटी से अधिक समय लगता है तो वह तिथि बढ़ जाती है और जब 60 घटी से कम समय लगता है तो वह तिथि क्षय हो जाती है अर्थात् जिस तिथि में दो बार सूर्योदय हो जाए तो उस तिथि की वृद्धि और जिस तिथि में एक बार भी सूर्योदय नहीं हो उसका क्षय हो जाता है। तिथियों की क्षय और वृद्धि को हम निम्न प्रकार से समझ सकते हैं :-
वृद्धि तिथि:
जब किसी तिथि में दो बार सूर्योदय हो जाता है तो उस तिथि की वृद्धि हो जाती है। जैसे - किसी रविवार को सूर्योदय प्रात: 5:48 पर हुआ और इस दिन सप्तमी तिथि सूर्योदय के पूर्व प्रात: 5:32 बजे प्रारंभ हुई और अगले दिन सोमवार को सूर्योदय (प्रात: 5:47) के बाद प्रात: 7:08 तक रही तथा उसके बाद अष्टमी तिथि प्रारंभ हो गई। इस तरह रविवार और सोमवार को दोनों दिन सूर्योदय के समय सप्तमी तिथि होने से, सप्तमी तिथि की वृद्धि मानी जाती है। सप्तमी तिथि का कुल मान 25 घंटे 36 मिनिट आया जो कि औसत मान 60 घटी या 24 घंटे से अधिक है। ऎसी परिस्थिति में किसी भी तिथि की वृद्धि हो जाती है।
तिथि क्षय:
जब किसी तिथि में एक बार भी सूर्योदय नहीं हो तो उस तिथि का क्षय हो जाता है। जैसे- किसी शुक्रवार सूर्योदय प्रात: 5:44 पर हुआ और इस दिन एकादशी तिथि सूर्योदय के बाद प्रात: 6:08 पर समाप्त हो गई तथा द्वादशी तिथि प्रारंभ हो गई और द्वादशी तिथि आधी रात के बाद 27 बजकर 52 मिनिट (अर्थात् अर्द्धरात्रि के बाद 3:52) तक रही तत्पश्चात् त्रयोदशी तिथि प्रारंभ हो गई। द्वादशी तिथि में एक भी बार सूर्योदय नहंी हुआ। शुक्रवार को सूर्योदय के समय एकादशी और शनिवार को सूर्योदय (प्रात: 5:43) के समय त्रयोदशी तिथि रही, अत: द्वादशी तिथि का क्षय हो गया। इस प्रकार जब किसी तिथि में सूर्योदय नहीं हो तो उस तिथि का क्षय हो जाता है। क्षय तिथि को पंचांग के तिथि वाले कॉलम में भी नहीं लिखा जाता जबकि वृद्धि तिथि को दो बार लिखा जाता है।
वार
एक सप्ताह में सात दिन होते हैं:- रविवार, सोमवार, मंगलवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार और शनिवार।
रवि आदि सप्त वारों की प्रकृति एवम उनमें किए जाने वाले कार्यों का वर्णन पुराणों ,मुहूर्त ग्रंथों एवम फलित ज्योतिष ग्रंथों के अनुसार निम्नलिखित अनुसार है ———
वार
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प्रकृति
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यात्रा मेंदिशा
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त्याज्यदिशा
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किए जाने वाले कार्य
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रविवार
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ध्रुव
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पूर्व, उत्तर, अग्निकोण
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पश्चिम ,वायव्य
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गृह प्रवेश, राज्य कार्य, स्वर्ण एवम ताम्बे का क्रय विक्रय तथा धारण करना, विज्ञानं, अनाज, अग्नि एवम बिजली के
कार्य
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सोमवार
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सम
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दक्षिण, पश्चिम, वायव्य
|
उत्तर ,पूर्व, आग्नेय
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राज्याभिषेक ,गृह शुभारम्भ, कृषि, लेखन, दूध-घी व तरल पदार्थों का क्रय विक्रय ।
|
मंगलवार
|
उग्र
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दक्षिण, पूर्व, अग्नि कोण
|
पश्चिम, वायव्य, उत्तर
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विवाद एवम मुकद्दमे का आरम्भ, शस्त्र अभ्यास, शौर्य के कार्य, शल्य चिकित्सा, बिजली के कार्य, अग्नि से संबधित कार्य, धातुओं का क्रय विक्रय
|
बुधवार
|
चर,सौम्य
|
दक्षिण, नैऋत्य, पूर्व
|
उत्तर, पश्चिम, ईशान
|
यात्रा, मंत्रणा, लेखन, गणित, शेयर, व्यापार, ज्योतिष, शिल्प, लेखा कार्य, शिक्षा, बोद्धिक कार्य, संपादन, संदेश भेजना, मध्यस्थता करना
|
गुरुवार
|
क्षिप्र
|
उत्तर, पूर्व, ईशान
|
दक्षिण, पूर्व, नैऋत्य
|
यात्रा ,धार्मिक कार्य ,विद्याध्ययन, बैंक का कार्य, वस्त्र अलंकारधारण
करना, प्रशासनिक कार्य, स्वर्ण का क्रय, पुत्र एवम गुरु से सम्बंधित कार्य
|
शुक्रवार
|
मृदु
|
पूर्व उत्तर ईशान
|
नैऋत्य, पश्चिम, दक्षिण
|
गृह प्रवेश, कन्या दान, सहवास ,
नृत्य, गायन, संगीत, कलात्मककार्य, आभूषण, श्रृंगार, सुगन्धित पदार्थ, वस्त्र, वाहन क्रय, चाँदी, सुखोपभोग केसाधन
|
शनिवार
|
दारुण
|
नैऋत्य,पश्चिम, दक्षिण
|
पूर्व, उत्तर, ईशान
|
गृहारंभ, गृह प्रवेश, विवाद के लिए
गमन, तकनीकी कार्य, शल्य क्रिया, क्रूर कार्य, प्लास्टिक-तेल-पेट्रोल का
कार्य या क्रय विक्रय, लकड़ी, सीमेंट
|
आकाश में तारामंडल के विभिन्न रूपों में दिखाई देने वाले आकार को नक्षत्र कहते हैं। मूलत: नक्षत्र 27 माने गए हैं। ज्योतिषियों द्वारा एक अन्य अभिजित नक्षत्र भी माना जाता है। चंद्रमा उक्त सत्ताईस नक्षत्रों में भ्रमण करता है।
आकाश में तारा-समूह को नक्षत्र कहते हैं। साधारणतः यह चन्द्रमा के पथ से जुडे हैं, पर वास्तव में किसी भी तारा-समूह को नक्षत्र कहना उचित है। ऋग्वेद में एक स्थान सूर्य को भी नक्षत्र कहा गया है। अन्य नक्षत्रों में सप्तर्षि और अगस्त्य हैं
चंद्रमा २७-२८ दिनों में पृथ्वी के चारों ओर घूम आता है। खगोल में यह भ्रमणपथ इन्हीं तारों के बीच से होकर गया हुआ जान पड़ता है। इसी पथ में पड़नेवाले तारों के अलग अलग दल बाँधकर एक एक तारकपुंज का नाम नक्षत्र रखा गया है। इस रीति से सारा पथ इन २७ नक्षत्रों में विभक्त होकर 'नक्षत्र चक्र' कहलाता है। नीचे तारों की संख्या और आकृति सहित २७ नक्षत्रों के नाम दिए जाते हैं—
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नाम
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देवता
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आकृति और पहचान
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1
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अश्विनी (Ashvinī)
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केतु
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घोड़ा
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2
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भरणी (Bharanī)
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शुक्र (Venus)
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त्रिकोण
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3
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कृत्तिका (Krittikā)
|
रवि (Sun)
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अग्निशिखा
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4
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रोहिणी (Rohinī)
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चन्द्र (Moon)
|
गाड़ी
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5
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मॄगशिरा (Mrigashīrsha)
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मङ्गल (Mars)
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हरिणमस्तक वा विडालपद
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6
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आद्रा (Ārdrā)
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राहु
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उज्वल
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7
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पुनर्वसु (Punarvasu)
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बृहस्पति(Jupiter)
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धनुष या धर
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8
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पुष्य (Pushya)
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शनि (Saturn)
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माणिक्य वर्ण
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9
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अश्लेशा (Āshleshā)
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बुध (Mercury)
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कुत्ते की पूँछ वा
कुलावचक्र
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10
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मघा (Maghā)
|
केतु
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हल
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11
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पूर्वाफाल्गुनी (Pūrva Phalgunī)
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शुक्र (Venus)
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खट्वाकार X उत्तर दक्षिण
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12
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उत्तराफाल्गुनी (Uttara Phalgunī)
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रवि
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शय्याकारX उत्तर दक्षिण
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13
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हस्त (Hasta)
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चन्द्र
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हाथ का पंजा
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14
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चित्रा (Chitrā)
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चित्रगुप्त
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मुक्तावत् उज्वल
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15
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स्वाती (Svātī)
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राहु
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कुंकुं वर्ण
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16
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विशाखा (Vishākhā)
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बृहस्पति
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तोरण या माला
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17
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अनुराधा (Anurādhā)
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शनि
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सूप या जलधारा
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18
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ज्येष्ठा (Jyeshtha)
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बुध
|
सर्प या कुंडल
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19
|
मूल (Mūla)
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केतु
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शंख या सिंह की पूँछ
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20
|
पूर्वाषाढा (Pūrva Ashādhā)
|
शुक्र
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सूप या हाथी का दाँत
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21
|
उत्तराषाढा (Uttara Ashādhā)
|
रवि
|
सूप
|
22
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श्रवण (Shravana)
|
चन्द्र
|
बाण या त्रिशूल
|
23
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मङ्गल
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मर्दल बाजा
|
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2
|
4शतभिषा (Shatabhishaj)
|
राहु
|
मंडलाकार
|
25
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पूर्वभाद्र्पद (Pūrva Bhādrapadā)
|
बृहस्पति
|
भारवत् या घंटाकार
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26
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उत्तरभाद्रपदा (Uttara Bhādrapadā)
|
शनि
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दो मस्तक
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27
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रेवती (Revatī)
|
बुध
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मछली या मृदंग
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इन २७ नक्षत्रों के अतिरिक्त 'अभिजित्' नाम का एक और नक्षत्र पहले माना जाता था पर वह पूर्वाषाढ़ा के भीतर ही आ जाता है, इससे अब २७ ही नक्षत्र गिने जाते हैं। इन्हीं नक्षत्रों के नाम पर महीनों के नाम रखे गए हैं। महीने की पूर्णिमा को चंद्रमा जिस नक्षत्र पर रहेगा उस महीने का नाम उसी नक्षत्र के अनुसार होगा, जैसे कार्तिक की पूर्णिमा को चंद्रमा कृत्तिका वा रोहिणी नक्षत्र पर रहेगा, अग्रहायण की पूर्णिमा को मृगशिरा वा आर्दा पर; इसी प्रकार और समझिए।
योग
योग 27 प्रकार के होते हैं। सूर्य-चंद्र की विशेष दूरियों की स्थितियों को योग कहते हैं। दूरियों के आधार पर बनने वाले 27 योगों के नाम क्रमश: इस प्रकार हैं:-
विष्कुम्भ, प्रीति, आयुष्मान, सौभाग्य, शोभन, अतिगण्ड, सुकर्मा, धृति, शूल, गण्ड, वृद्धि, ध्रुव, व्याघात, हर्षण, वज्र, सिद्धि, व्यातीपात, वरीयान, परिघ, शिव, सिद्ध, साध्य, शुभ, शुक्ल, ब्रह्म, इन्द्र और वैधृति।
27 योगों में से कुल 9 योगों को अशुभ माना जाता है तथा सभी प्रकार के शुभ कामों में इनसे बचने की सलाह दी गई है। ये अशुभ योग हैं: विष्कुम्भ, अतिगण्ड, शूल, गण्ड, व्याघात, वज्र, व्यतीपात, परिघ और वैधृति। कुल मिला कर २७ योग होते हैं | जैसे कि अश्विनी नक्षत्र के आरम्भ से सूर्य और चंद्रमा दोनों मिल कर ८०० कलाएं आगे चल चुकते हैं तब एक योग बीतता है, जब १६०० कलाएं आगे चलते हैं तब २, इसी प्रकार जब दोनों १२ राशियों – २१६०० कलाएं अश्विनी से आगे चल चुकते हैं तब २७ योग बीतते हैं | सूर्य और चंद्रमा के स्पष्ट स्थानों को जोड़ कर तथा कलाएं बना कर ८०० का भाग देने पर गत योगों की संख्या निकल आती है | शेष से यह अवगत किया जाता है कि वर्तमान योग की कितनी कलाएं बीत गयी हैं | शेष को ८०० में से घटाने पर वर्तमान योग की गम्य कलाएं आती हैं | इन गत या गम्य कलाओं को ६० से गुना कर के सूर्य और चंद्रमा की स्पष्ट दैनिक गति के योग से भाग देने पर वर्तमान योग की गत और गम्य घतिकाएं आती हैं |
२७ योगों के नाम इस प्रकार हैं |
`१. विष्कम्भ २. प्रीति ३. आयुष्मान ४. सौभाग्य
५. शोभन ६. अतिगंड ७. सुकर्मा ८. धृति
९. शूल १०. गंड ११. वृद्धि १२. ध्रुव
१३. व्याघात १४. हर्षण १५. वज्र १६. सिद्धि
१७. व्यतिपात १८. वरीयन १९. परिघ २०. शिव
२१. सिद्ध २२. साध्य २३. शुभ २४. शुक्ल
२५. ब्रह्म २६. एन्द्र २७. वैधृति
योगों के स्वामी -
|
परिध योग का आधा भाग त्याज्य है, उत्तरार्ध शुभ है | विष्कम्भ योग की प्रतम पांच घटिकाएं, शूल योग की प्रथम सात घटिकाएं, गंड और व्याघात योग की प्रथम छह घटिकाएं, हर्षण और वज्र योग की नौ घटिकाएं एवं वैधृति और व्यतिपात योग समस्त परित्यज्य है |
करण
तिथि के आधे भाग को करण कहते हैं। यह पंचांग का पांचवां अंग है। एक तिथि में दो करण होते हैं। करणों की कुल संख्या 11 है- बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज, विष्टि ये सातों चर करण तथा शकुनि, नाग, चतुष्पद व किंस्तुघ्न ये चार स्थिर करण होते हैं।
कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी (14) के उत्तरार्ध में शकुनि,
अमावस्या के पूर्वार्ध में चतुष्पाद,
अमावस्या के उत्तरार्ध में नाग और
शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के पूर्वार्ध में किस्तुघ्न करण होता है।
विष्टि करण को भद्रा कहते हैं। भद्रा में शुभ कार्य वर्जित माने गए हैं।
शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के पूर्वाह्न की आधी तिथि में किस्तुघ्न करण और इसी तरह आधे भाग परार्द्ध में बव करण होता है।
इसी तरह शुक्ल पक्ष द्वितीया में बालव व कौलव,
तृतीया में तैतिल व गर,
चतुर्थी में वणिज व विष्टि,
पंचमी में बव व बालव,
षष्ठी में कौलव व तैतिल,
सप्तमी में गर व वणिज,
अष्टमी में विष्टि व बव,
नवमी में बालव व कौलव,
दशमी में तैतिल व गर,
एकादशी में वणिज व विष्ट,
द्वादशी में बव व बालव,
त्रयोदशी में कौलव व तैतिल,
चतुर्दशी मं गर व वणिज,
पूर्णिमा में विष्टि व बव करण होते हैं।
कृष्ण पक्ष के प्रतिपदा में बालव व कौलव,
द्वितीया में तैतिल व गर,
तृतीया में वणिज व विष्टि,
चतुर्थी बव व बालव,
पंचमी में कौलव व तैतिल,
षष्ठी में गर व वणिज,
सप्तमी में विष्टि,
अष्टमी में बालव व कौलव,
नवमी में तैतिल व गर,
दशमी में वणिज व विष्टि,
एकादशी में बव व बालव,
द्वादशी में कौलव व तैतिल,
त्रयोदशी में गर व वणिज,
चतुर्दशी में विष्टि व शकुनि तथा
अमावस्या में गर व नाग करण होते हैं। विष्टि करण को भद्रा कहते हैं।
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बव करण-
यह बाल अवस्था का, समभाव का है। इसका वाहन सिंह, उपवाहन हाथी, श्वेत वस्त्र धारण करने वाला, आयुध में बंदूक धारण करने वाला, अन्न का भक्षण करने वाला, कस्तूरी का आलेपन करने वाला, देवता जाति का, पुन्नाग पुष्प की रुचि वाला, सुवर्ण का नूपुर पहनने वाला और गंगा स्नान का आनंद लेने वाला है।
बालव करण-
यह कुमार अवस्था का करण है। यह बैठी हुई स्थिति में है। मध्यम फल वाला है। मुख्य वाहन ब्याघ्र है, उपवाहन अश्व है। फल भयकारी है। वस्त्र पीला, उपवस्त्र लाल है। आयुध गदा, भक्ष्य पदार्थ पायस, लेपन कुंकुम, जाति भूत का, जाती नामक पुष्प को धारण करने वाला, चांदी का ककण भी है व यमुना स्नान का इच्छुक है।
कौलव करण-
यह उर्ध्व स्थिति को प्राप्त करने वाला, श्रेष्ठ फल, वराह वाहन, उपवाहन वृषभ, फल पीड़ादायक, हरित मुख्य वस्त्र, उपवस्त्र चित्रित, खड्ग हथियार, अन्न का भक्षण करने वाला, मोती धारण करने वाला, अधिक उम्र वाला और सरस्वती स्नान का इच्छुक है।
तैतिल करण-
सुप्त अवस्था में रहने वाला, पाप फल वाला, मुख्य वाहन गर्दभ, उपवाहन भेड़ा, तात्कालिक फल उत्तम, पीला वस्त्र वाला, उपवस्त्र भी पीला, हाथ में दण्ड धारण करने वाला, पक्वान्न भक्षण करने वाला, मिट्टी का लेपन, पक्षी जाति का, केतकी पुष्प, कांस्य पात्र वाला, प्रवाल आभूषण, युवा अवस्था का तथा गंगा स्नान का इच्छुक है।
गर करण- प्रौढ़ावस्था का एवं बैठी हुई स्थिति में रहने वाला, मध्यम फल वाला, मुख्य वाहन हाथी, उपवाहन गदर्भ, लक्ष्मी है वाहन का फल, मुख्य वस्त्र लाल, उपवस्त्र नीला, धनुष धारण करने वाला, दुग्ध का भक्षण करने वाला, सुगन्धित वस्तु का आलेपन करने वाला, पशु जाति का, विल्वपत्र से प्रसन्न रहने वाला, लौह व मुकुट पहनने वाला, नर्मदा स्नान का इच्छुक है।
वणिज करण-
बैठी अवस्था का, मध्यम फल वाला, मुख्य वाहन महिष, उपवाहन ऊंट, वाहन फल क्लेश कारक, दही भक्षण करने वाला, महावर का आलेपन, मृग जाति का, मंदार पुष्प को ग्रहण करने वाला, मणि धारण करने वाला, पूर्ण उम्र वाला, कृष्णा नदी में स्नान का इच्छुक है।
विष्टि करण-
यह बैठी हुई अवस्था का है। फल मध्यम, मुख्य वाहन अश्व, उपवाहन सिंह, वाहन फल स्थिरता, मुख्य वस्त्र कृष्ण, उपवस्त्र पीला अंगोछा, कुन्त नाम का आयुध धारण करने वाला, चितान्न भक्षण करने वाला, ब्राह्मण जाति का, दूर्वा से प्रसन्न रहने वाला, गुन्जा पहनने वाला, वृद्ध अवस्था का तथा गोदावरी स्नान का इच्छुक है।
शकुनि करण-
उर्ध्व अवस्था का, फल सामान्य, कुत्ता मुख्य वाहन, उपवाहन शेर, वाहन फल श्रेष्ठ, चितकबरा मुख्य वस्त्र, मृगचर्म उपवस्त्र, पास नाम का हथियार धारण करने वाला, गुड़ का सेवन करने वाला, हरिद्रा का आलेपन, क्षत्रिय जाति का, कमल पुष्प से प्रसन्न रहने वाला, वंध्या अवस्था का व गंगा में स्नान का इच्छुक है।
चतुष्पद करण-
सुप्त अवस्था का, सामान्य फल, मेष मुख्य वाहन, उपवाहन महिष, वाहन फल क्लेश, कंबल मुख्य वस्त्र, लाल वस्त्र उपवस्त्र, अंकुश हथियार, मधु का सेवन करने वाला, कज्जल का आलेपन व वैश्य जाति का, वेला पुष्प लो प्रसन्न व नीलम आभूषण, वंध्या अवस्था का तथा तुंगभद्रा नदी में स्नान का इच्छुक।
नाग करण- सुप्त अवस्था का, सामान्य फल, मुख्य वाहन वृषभ, उपवाहन ब्या,घ्र, वाहन फल स्थिरता, बिना वस्त्र वाला, छाल मुख्य उपवस्त्र, तलवार धारण करने वाला, घृत भक्षण करने वाला, अगर का लेपन करने वाला, शूद्र जाति का, पाटली पुष्प पहनने वाला, भूमि पर सदा रहने वाला, बज्र हथियार धारण करने वाला, पुत्र- पौत्र से संपन्न व कावेरी स्नान का इच्छुक।
किंस्तुघ्न करण-
उर्ध्व अवस्था का, फल सामान्य, मुख्य वाहन मुर्गा, उपवाहन बानर, वाहन फल मृत्यु, धानी रंग का वस्त्र मुख्य वस्त्र, हल्का लाल उपवस्त्र, हथियार बाण, शर्करा का भक्षण करने वाला, कपूर का आलेपन, वर्णशंकर जाति का, जौ का पुष्प धारण करने वाला, सुवर्ण का आभूषण, पूर्ण तेजस्वी अवस्था में रहने वाला व कृष्णा नदी में स्नान का इच्छुक है।
विशेष- सुप्त अवस्था का तथा बैठी हुई करण वाली स्थितियां उत्तम नहीं होतीं। उर्ध्व अवस्था के करण का उत्तम फल होता है।
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Anju Anand